बांग्लादेश का घटनाक्रम भारत के लिए भी सबक

भारत के पड़ोसी बांग्लादेश में आरक्षण को लेकर बड़े पैमाने पर भड़की हिंसा ने फिर साबित कर दिया कि आरक्षण का मुद्दा समाज में किस हद तक उथल-पुथल मचा सकता है। वहां सरकारी नौकरियों में आरक्षण के खिलाफ उग्र आंदोलन में 100 से ज्यादा लोगों की जान गई। विवाद की जड़ में बांग्लादेश के 1971 के मुक्ति संग्राम के स्वाधीनता सेनानियों के वंशजों के लिए सरकारी नौकरियों में 30 फीसदी आरक्षण है। आंदोलनकारियों का तर्क है कि मुक्ति संग्राम के सेनानियों के परिवारों को पांच दशक में आरक्षण का काफी फायदा मिल चुका है। इस आरक्षण को आगे जारी रखने का कोई औचित्य नहीं है।
इस मुद्दे पर बांग्लादेश में पहले भी आंदोलन हो चुके हैं। वहां की सरकार ने 2018 में इस आरक्षण व्यवस्था को खत्म कर दिया था, लेकिन पिछले महीने हाईकोर्ट ने इसे फिर बहाल कर दिया। इसके खिलाफ सरकार की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने रविवार को हाईकोर्ट का फैसला पलट दिया। बांग्लादेश में हालात बिगडऩे से उन चार हजार से ज्यादा भारतीय विद्यार्थियों के भविष्य पर संकट मंडरा रहा है, जो वहां मेडिकल की पढ़ाई कर रहे हैं। भारतीय विदेश मंत्रालय के मुताबिक, इनमें से 778 को सड़क मार्ग से भारत लाया जा चुका है। बांग्लादेश में रह रहे करीब 15 हजार अन्य भारतीयों को दूतावास के संपर्क में रहने को कहा गया। भारत सरकार की तरह ऐसी ही तत्परता बांग्लादेश सरकार ने आंदोलन को खत्म करने के लिए दिखाई होती तो हालात इतने विस्फोटक नहीं होते। आंदोलन की कमान बांग्लादेश के युवाओं के हाथों में है। इनमें ज्यादातर विद्यार्थी हैं। आरक्षण व्यवस्था से युवा वर्ग ही सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है। वहां की 17 करोड़ की आबादी में करीब 3.2 करोड़ बेरोजगार युवा शामिल हैं। मुक्ति संग्राम सेनानियों के वंशजों को 30 फीसदी के अलावा महिलाओं और पिछड़े जिलों के लोगों को 10-10 फीसदी, जबकि धार्मिक अल्पसंख्यकों को पांच फीसदी के साथ दिव्यांगों को एक फीसदी आरक्षण दिया जाता है। आंदोलनकारी, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के कोटे के खिलाफ नहीं हैं। वे सिर्फ मुक्ति संग्राम सेनानियों के वंशजों का कोटा खत्म कराना चाहते हैं और सरकारी नौकरियों में मेरिट को आधार बनाने पर जोर दे रहे हैं।
बांग्लादेश का ताजा घटनाक्रम भारत के लिए भी सबक है। यहां भी राजनीतिक दल आरक्षण जैसे संवेदनशील मुद्दे को गरमाए रखने की कोशिशों में रहते हैं। आरक्षण की निर्धारित सीमा लांघने से बचने की जरूरत है। इससे सामाजिक समानता का सिद्धांत आने वाली पीढ़ियों पर भारी पड़ सकता है।